21 दिसंबर 2010
चाय पीने के बहाने
चाय पीने के बहाने आ जाते हैं आखट में चाय पीने के बहाने खीलते हैं फूल तो कहीं बिक्हर जाते हैं पंखुडियां चाय पीने के बहाने कभी पीते तो चाय तो कभी पीलाते फिर इसी सोच में बिक्हर जाते हैं पंखुडियां आते हैं लेकर कशिश चाय पीने के बहाने कितनी अनजान है यह जिंदगी के लम्हे मुकेश नेगी २२-१२-२०१०.
20 दिसंबर 2010
पहेलियाँ
पहेलियाँ के बीच
अनगिनत पहेलियाँ
सूझते ओर सुझाते हैं
एक नयी सोच उभर कर
आता है इन पहेलियों
के बीच घुमाते हैं माथापची
करने जिंदगी के नुश्खे
किसी छते के बीच
फसा हो मक्खी की
तरह शहद घेर लेते हैं
बादलों के बीच
निकल आते हैं
नए- नए नुश्खे
अनगिनत पहेलियाँ
सूझते ओर सुझाते हैं
एक नयी सोच उभर कर
आता है इन पहेलियों
के बीच घुमाते हैं माथापची
करने जिंदगी के नुश्खे
किसी छते के बीच
फसा हो मक्खी की
तरह शहद घेर लेते हैं
बादलों के बीच
निकल आते हैं
नए- नए नुश्खे
14 दिसंबर 2010
बदलाव
बदलाव भूल गए संस्कार जहाँ छोड़ी है अपनी छाप उजवल
भविष्य की कलपना करते हुए पालन करते हैं रुढियों का कचरों के ढेर को जलना भी नहीं भाह्ता आज के शिक्षित समाज को हर कोई आज भुलाने लगा है खेत खलियान ओर आँगन के संस्कार मुकेश नेगी १५-१२-२०१०
आज फिर से
आज आज कुछ सोचा समझा बैठकर कुछ कहूं करूँ फिर भी इतनी कशमकश के बाद कोई हल नहीं निकल पाया हमेशा इसी सोच में कि कभी तो आज ठीक होगा. मुकेश नेगी 15 -12-2010.
13 दिसंबर 2010
धूप
धुपहरी में अकेला बैठ किसी विचारों के सहारे सवपन के आगोश में करवटें बदलते रोज़ इसी सोच में कि कब तक चलेगा तपिश .
12 दिसंबर 2010
मिलन
मिलन पंछियाँ बैठते हैं एक छोर से दुसरे तितलियाँ बैठते हैं एक डाली से दूसरे भंवरे उड़ते हैं एक फूल से दूसरे खिलते हैं फूल पंखुड़ियों के साथ खिलता है हिय जब आपस में मिलते हैं मुकेश नेगी, १२-०४-२०११.
11 दिसंबर 2010
नये वर्ष का पायदान
नये वर्ष की शुभकामनाएं आने वाला वर्ष सभी की जीवन में खुशियाँ लाये भूल कर पिछले वर्ष कि खट्टी-मीठी यादों को आओ नए वर्ष के पायदान में जीवन की ढेर सारी खुशियाँ लेकर मनाएं नव वर्ष हम सभी के जीवन को खुशियों की झोली दे ढेर सारी छुट्टियाँ मिले आपकी ख़ुशी को मानाने में नयी कढ़ी जोड़ें खुशियों की यही आशा करते हैं हम
9 दिसंबर 2010
स्थिति बयान नहीं कर सकता
१.स्थिति
इंसान बयान नहीं करता
स्थिति वास्तविकता को
बंद रख खोखलेपन के
सहारे जीता उडाता
पंछी बन हर वक्त
२.स्थिति
फिर वही धुंध आगाज फिर
शरद ऋतु का निपटता हमेशा
फिर वही शरद ऋतु लगे
जैसे परीक्षा की घड़ी
जो कल था वैसी स्थिति
में आजकल आईने के
रूप में दिखता हर पल
मुकेश नेगी, १२-०४-२०११.
इंसान बयान नहीं करता
स्थिति वास्तविकता को
बंद रख खोखलेपन के
सहारे जीता उडाता
पंछी बन हर वक्त
२.स्थिति
फिर वही धुंध आगाज फिर
शरद ऋतु का निपटता हमेशा
फिर वही शरद ऋतु लगे
जैसे परीक्षा की घड़ी
जो कल था वैसी स्थिति
में आजकल आईने के
रूप में दिखता हर पल
मुकेश नेगी, १२-०४-२०११.
उड़ान
उड़ान हर इन्सान उडाता जा रहा है पंछियों की तरह आसमान को छूने के फ़िराक में कब आएगा हमारा वो घडी जिसमे हमें भी मौका मिले आसमान को छूने का म..."
स्थिरता
"लगाव आखिर यह कैसा लगाव पल भर में मिलना क्षण भर में बिछुड़ना आधुनिकता का दौर अपनों से दूर होना एक सुख को त्याग दूसरे सुख की तला..."
लगाव
लगाव
आखिर यह
कैसा लगाव
पल भर में
मिलाना क्षण भर में
बिछुड़ना
आधुनिकता की डोर
अपनों से दूर होना
एक सुख को त्याग
दूसरे सुख की तलाश में
ढूँढता फिरता
नाव
जो चक्र काटता
समुद्र के चारों ओर
पल प्रतिपल ।
ठहराव
ठहराव रुकी-रुकी सी जीवन की यह घड़ी इंतजार की आखिर कहाँ तक चलेगा यह सफ़र न कोई आसरा न कोई ठिकाना उजाला सा जीवन धुंधला होता जाता है फिर भी हिम्मत जुटाने की कोशिश में रहता है इन्सान यही है जीने की कला
उडान
उडान हर इन्सान उड़ता जा रहा है पंछियों की तरह आसमान को छूने के फ़िराक कब आएगा हमारा वो गढ़ी जिसमे हमें भी मौका मिले आसमान को छूने का मौका बस इसी आस में की कभी तो दिखेगी यह उड़ानों का सफ़र
दायरा
दायरा आखिर क्यों टूटता चैन कितना अजीब लगता है जिंदगी का हर पहलू क्यों टूटता है दायरा कितना मुश्किल होता है जिंदगी की डोर बंधना हर पल इसी आस में रहता है मानव कितनी अजीब सी लगती है जिंदगी की यह डोर
ख्वाब
ख्वाब आते हैं मन में खवाब गुथियों में समाँ जाते हैं ओर करते हैं हलचल धुंध सा फैला है आँखों के सामने बादलों के घेरे में बस इसी आस में कब सुलझेगी ये अजब पहेली
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