6 जून 2012

तन्हाई

 न जाने मन क्यों 
उदास हो  जाता है 
कभी हम मुस्कुराते 
तो कभी तन्हाई पीछा 
नहीं  छोड़ता  है ।

कभी उजियारा तो कहीं 
अँधेरा हमें छोड़  जाता है 
कहीं सन्नाटा कहीं भीड़ 
उभरता है ।

चलते- चलते



 चलते हुये यूँ ही
 भाँप लेता हूँ
 सड़क के किनारे
 राहगीर

 क्या मंशा है
 हंसी झलकते हुए
 और सिमट जाते हैं
 दोबारा वहीँ कागज
 के पन्नों पर 

 तराशते हुए 
 अपना वजूद कहीं
 सिमट कर रह न जाए
 पन्नों को समेट कर
 अपने साथ चलते-चलते। 

घूम रहा हूँ

  हाइकु

घूम रहा हूँ
 आज भी शहर
 दर शहर

 आईने जहाँ
 दर्पण के रंग
 रूप लिये हो

 ख़ामोशी के साये
 उदासी  लिये
 फिर रहा हूँ

 घूम रहा हूँ
 मित्रों के चारों
 ओर बंदिश में

 घूम रहा हूँ
 बनते बिगड़ते
 रिश्तों की डोर ।