संलिप्त होते हुए
विलुप्त सा नजारा
झलकता है
दिन, रात खोई हुई
अस्मिता उजाले की ओर पहल के लिये
जहाँ सोया हुआ
अस्मिता जगा जाये
ओर बर्बस बढ़ चले
शून्य के आगे अस्तित्व
स्वछन्द दिशाओं में
उजले से बिना रुके|
मेरा मानना है
कि सहम जाना
बहुत मुश्किल में पडना
क्यों होता है ?
जब राह कठिन
लगते हैं
ख़ामोशी क्यों उठा
ले जाती है ?
जिसका कोई
मतलब हो
हवा क्यों रुक
सी जाती है ? जिन्दगी के सफर
तन्हा क्यों है ? कोई नहीं हो तब
दूरियाँ कम क्यों नहीं
होती है? रूकावट जहाँ हो
कदम रुकने के कारण
क्या हो सकते हैं ? बन्दिशें जहाँ हो आप्लावित से मौसम के
रंग|
मुझे मालूम है
कि दरवाजे के भीतर
कभी मुस्कराते हुये
बातों में यूँ ही दिन
बीत जाते हैं
एक कसक मन के
भीतर हर समय उठता
बातों ही बातों में
मुस्कराने के पल
जहाँ कभी ये मुस्कराने
के ये पल दुबर न हो जाये।