22 जून 2012

बारिश

रास्ते में कुछ आने का सूचक
चलो एक नये दिशा की ओर
कि आने वाला है बरसाती रंग
पड़ने लगे हैं छिटपुट बूंदें
चले एक नई दिशा की ओर |

कसक

 कसक दिल की जगी रहे 
 आस संजोये हुए मन के झमेलों 
 से दूर और चलते रहे जिन्दगी की
 भागदौड बरसात में भी बिन मौसमों
 के रूख और हम जियें जिसमें संजीदगी |

अस्तित्व

संलिप्त होते हुए
विलुप्त सा नजारा
झलकता है
दिन, रात खोई हुई
अस्मिता उजाले की ओर
पहल के लिये
जहाँ सोया हुआ
अस्मिता जगा जाये
ओर बर्बस बढ़ चले
शून्य के आगे अस्तित्व
स्वछन्द दिशाओं में
उजले से बिना रुके|

21 जून 2012

प्रभात

हर पहलू जहाँ महक
चेहक कर कदमों से
खुलते हैं ताजगी के
राग ठनक कर प्रभात
के संग सुप्रभात !

शुरू होता है दिन का
आगाज जहाँ से शुरू
होते हैं व्यस्तता के
दौर, पनपते हैं नये
सवाल और खोजते हैं

कागज के पन्ने कलम
से सिमट कर रह जाते हैं
और शुरू हो जाता है
छंदों के उद्वेलित मनोभाव

अभिव्यक्ति के छलावे
सिमट कर रह जाते है
चंद शब्दों की परिभाषा |

20 जून 2012

परिवेश

समझकर जब हम
सोचते है कि नया
बहाना कहीं हो

हर समय नये पहल,
रूहों के इन परिवेश
से विरल ही अनवरत

हम ताकते रह जाते
जहाँ से छन्द मुड जाते
विचारों के दिशाओं

कहीं बनते बिगड़ते
सफर के झंझावतों से
बढ़ निकलने के लिये

जहाँ स्तब्द्ध बना रहे
नैया पे मनमाफिक
शान्त रहे विचारों के
कलेवर में चलकर |

19 जून 2012

व्यंग्

दिन भर घूमकर जब कोई लौटता,
और एक के बाद एक व्यंग करता|

लगता है वो भी व्यंग सुनकर लौटता,
बरबस चोट खाये हुए पलकें झपक कर हो|

अरे मित्रों

अरे मित्रों !
क्यूँ इतने उदास हो
हाले दिल तो बयाँ कीजिए

हम भी आपके
हाले राह पे खड़े हैं
इंतजार काफी हुआ है

जरा हमें भी गौर फरमाइये
इन मदमस्त कंटीले राहगीर
के तले जहाँ सुकून हो, हाले
दिल बयाँ करने का |

नोकजोंक

एक झूठ जो कभी
यहाँ-वहां फिरता है
चलता, फिरता जो
झुकता नहीं कभी
झूठ की आन लिए
फिरता है


न जाने आज यहाँ हो
या वहां जिसका कार्य ही झठ
बतलाना यहाँ वहां
फरेबी में घूमता
जिसका कार्य ही
नोंक्जोंक करना रहता
हर समय


आज क्या दिखेगा
इसी में सबकुछ बोलता
नहीं लगता मंशा कुछ
कर गुजरने की


जो हमेशा दूसरों
को दबाने की मंशा में
घूमता, फिरता जिसका
कार्य ही झूठा हो।

दौड

दौड़ जहाँ पाने
खाने के लिए
इन कंटीले राहों
की ओर


होड़ में मकाम,
मंजिलें दौड़ न
होकर हासिल हो


इस सफ़र में
लग  जाते हैं
कंटीले लग जाए


दौड़ने की ललक
संजो कर कहीं
पथिक फिसल न जाए


होश न खोये
पथिक जोश में
खाने, दौड़ने के लिए 
चलता रहे । 

16 जून 2012

संयम के पल

जहाँ से चले हैं
जहाँ आकर रुके हैं
जहाँ सारा जहाँ
चलने की दिशा है
कितना सुखद
कितना हसीन
कितने सफल

होते हैं ख्वाहिश
चाहने के लिये
कहीं किसी डगर
को लिये

चलने के लिये
फिर भी मन
उत्साह से भरा
कभी कभी इस
तरह भी

किरणों के संग
फिर से उमंग भरे
और सुखद पहलू
दिशाओं में संजो रखना |

13 जून 2012

जीवनशैली

मेरा मानना है
कि सहम जाना
बहुत मुश्किल में पडना
क्यों होता है ?
जब राह कठिन
लगते हैं
ख़ामोशी क्यों उठा
ले जाती है ?
जिसका  कोई
मतलब हो
हवा क्यों रुक
सी जाती है ?
जिन्दगी के सफर
तन्हा क्यों है ?

कोई नहीं हो तब
दूरियाँ कम क्यों नहीं
होती है?

रूकावट जहाँ हो
कदम रुकने के कारण
क्या हो सकते हैं ?

बन्दिशें जहाँ हो
आप्लावित से मौसम के
रंग|

12 जून 2012

सन्देह न हो

 सन्देह के जोड़ में,
 ताकते रह जाते
 हर समय कहीं
 ठिकानों के साथ में
 कई घुमावदार पंक्तिओं में
 मन सहम जाए
 इन सन्देह के घेरों में
 जहाँ सन्देह न हो |


बातों ही बातों में


बातों-बातों में बीत जाते हैं
समय और हम खोजते हैं
उनमें बातों को, जहाँ हम
तन्हाई महसूस करते हैं

इन पलों में हम
समेटना चाहते हैं
अपने आप को,
जहाँ तन्हाई हमसे दूर
भाग जाये,
फिर से इक नई उमंग
लौट आये इन तनहाइयों
में हर समय,

यादों के इन तनहाइयों में
हम भी कहीं न कहीं कतार
में नजर आये ऐसा आस
मन में संजो रखता हूँ|

अकेला

अकेला निराश

बातें जब दो बैठते हैं

तीसरा जब मिल जाता हैं

चौथा जब बातों में शामिल हो जाता है

जब बातों का सिलसिला जारी रहता है

तभी हंसी छलक सी जाती है बातों में

बातों ही बातों में न जाने क्या-क्या बात होती है।

10 जून 2012

सुकून के पल

सुकून के पल बीतते हैं,
इन मदमस्त पर्वतों ,नदियों व लहलहाते टहनियों के साथ,
जहाँ हवायें मन स्थिर, हृदय कोमल व मस्तिश्क शान्त करा देते हैं 
व्यतीत होते हैं सुकून के पल |

9 जून 2012

आस

कैलाश पर्वत |
 बादलों के घनेरे साये
 कहीं मन सहम जाए
 उजले गर्मी में मन
 कहीं सहम ठहर जाए
 किसी छोर से बुलावा
 आज भी हो, दिल की
 कसक यूँ ही जगी रहे ।

अस्तित्व

 अस्तित्व जहाँ कायम रहे
 सोचता हूँ , खोजता हूँ
 सोये हुए अस्मिता को
 जाग जाये
 जहाँ से खोकर हम
 पकड़ना चाहते हैं
 नयी अस्मिता ।

8 जून 2012

बातों में मुस्कराना

 मुझे मालूम है
 कि दरवाजे के भीतर
 कभी मुस्कराते हुये
 बातों  में यूँ ही दिन
 बीत जाते हैं 
 एक कसक मन के
 भीतर हर समय उठता
 बातों ही बातों में
 मुस्कराने के पल 
 जहाँ कभी ये मुस्कराने
 के ये पल दुबर न हो जाये। 
  


अतीत आगम

 अतीत के पन्ने
 जो अभी भी आगम
 हो जाते हैं
 कहीं किसी रूप
 को लिए

 सहमे से माकूल
 सहम से जाते हैं
 भविष्य को आंकने
 के लिए

 कलम जब कागज
 पर उतराने, आगम होने
 सही मायनों के संग

 फिर भी भयवश
 कलम कागज के
 पन्नों को पलट देता
 अतीत को आगम कर
 लेता है।




 



7 जून 2012

रात के बाद

 रात अकेला 
 न जाने किताबें 
 किस ओर हैं

 हवाएं बादलों के
 संग न जाने धूप 
 किस ओर हैं। 

 अँधेरी रात 
 बादलों का साया 
 बाकि है 

 आंधियाँ चले 
 बर्फ के संग
 बादलों के संग 

 बादल घनेरे 
 बिन बरसात 
 मंजिल कहाँ

 नाचते  पंछी 
 बरसात संग 
 उमड़ते मौसम संग

 धूप  खिलती  
 रात के बाद
 बरसात के बाद

 आइना टूट
 सा जाता  है
 जैसे ही बिखरते 
 
 नींद न आये
 शोर मचाये
 राहगीर

 बसंत  
 आगमन 
 जलध धरा हरा । 

  
   

तलाश में यादें

                          
 जब कभी भी देखा है
 तलाश  में यादों 
 के संग यूँ ही
 जाते हैं अहसास 
 के साथ कहीं 
 रुकावटें तो कहीं 
 हवाएं चलती है
 सुदूर  क्षेत्रों में
 कहीं भोर होते
 अस्त  होते
 जब से देखा है 
 नम आँखों से
 ओझल  होते 
 कहीं  रोते
 कभी मुस्कुराते
 कहीं हँसते 
 कभी घूरते 
 कहीं उलझे
 कभी बदलते 
 कहीं बोझिल
 दिखाई देते हैं।


6 जून 2012

तन्हाई

 न जाने मन क्यों 
उदास हो  जाता है 
कभी हम मुस्कुराते 
तो कभी तन्हाई पीछा 
नहीं  छोड़ता  है ।

कभी उजियारा तो कहीं 
अँधेरा हमें छोड़  जाता है 
कहीं सन्नाटा कहीं भीड़ 
उभरता है ।

चलते- चलते



 चलते हुये यूँ ही
 भाँप लेता हूँ
 सड़क के किनारे
 राहगीर

 क्या मंशा है
 हंसी झलकते हुए
 और सिमट जाते हैं
 दोबारा वहीँ कागज
 के पन्नों पर 

 तराशते हुए 
 अपना वजूद कहीं
 सिमट कर रह न जाए
 पन्नों को समेट कर
 अपने साथ चलते-चलते। 

घूम रहा हूँ

  हाइकु

घूम रहा हूँ
 आज भी शहर
 दर शहर

 आईने जहाँ
 दर्पण के रंग
 रूप लिये हो

 ख़ामोशी के साये
 उदासी  लिये
 फिर रहा हूँ

 घूम रहा हूँ
 मित्रों के चारों
 ओर बंदिश में

 घूम रहा हूँ
 बनते बिगड़ते
 रिश्तों की डोर ।

3 जून 2012

सतत परख

 हर समय कहीं
 न कहीं दूसरों के 
 सहारे निर्भर रहना 
 पड़ता है

 किसी  से क्लेश 
 करना नहीं सुहाता 
 है फिर भी हर क्षण
 हमें सबल परख की
 ओर दिशा बढ़ाना
 पड़ रहा है  

 किसी के साथ 
 बातचीत करना 
 सुनना, कहना
 साथ चलना सहज 
 रूप से सुहाता है

 हमें प्रत्येक क्षण
 उलझन में फसे रहना 
 सहज नहीं सुहाता है

 उलझन  हमें 
 किसी के सहारे 
 सतत परख की ओर
 अग्रसर कराते हैं 

 किसी  पर निर्भर रहना 
 हमें  सुहाता भी है 
 कभी क्लेश का रूप 
 धारण करना नहीं 
 सुहाता  है
 भूली  बिसरी 
 पंक्तियों में हम 
 सहम से जाते है 
 परख की ओर 

 सतत परख के
 मायने
 साथ में रहकर भी 
 उजियाले के लिए
 जंजालों 
 में सतत परख
 की ओर ले चलते हुए
 जो  हमें सहज सुहाता हैं |