11 अप्रैल 2011

जिंदगी एक धुआं

जिंदगी का हर पल
धुएं की तरह उड़ता जाता है
समझ कर भी नासमझ
और नासमझ कर भी
समझना
पड़ता है
कहीं इस धुंए में खो जाये
यही सोचते हैं अक्सर
कभी चाय की चुस्की
में बीत जाते हैं पल
तो कभी चलचित्रों की
रंगीनियों में कभी बीत जाते हैं
घंटों महफिलों में जिंदगी के
नये नये
दोस्त मश्तक में

मुकेश नेगी, ११-०४-२०११.

अजनबियों के महफ़िल में

अजनबियों के महफ़िल में कितना मुश्किल वीरान सी जिंदगी अजनबियों के न मंजिल न हमसफ़र मित्रों का पता चलते चलते कभी थक सा जाता हूँ इस सोच में कई गुथियाँ उलझ आते हैं मष्तिक में गुथम - गुथी में यूँ ही गुजर जाते हैं अनगिनत पल विचरणके इस खेल में कहीं किसी सुराख़ का पता ही नहीं चलता इस अनसुलझे विचारों में इसी भीड़ में फिर चलाना पड़ता है अजनबियों कई तरह कभी खो जाते हैं जिंदगी के आईने में अनेक दृश्य मुकेश नेगी, ११-०४-2011