उजाले में भी अँधेरे
का अहसास होने लगा है
जहाँ परम्परायें करते हैं
रुढियों का पालन
सदियों पुरानी सभ्यता
पर जीने लगा है मानव
कैसे मिटेगा अँधियारा
कब होगा उजाले का दीदार
निर्दोषों को कर विवश
चिथड़ों के साये होता
रहा है स्वार्थ का पालन
कब तक चलेगा
उजाले में अंधेरों का स्वार्थ
नियति के नियमों को रखकर
ताक पर जीने को विवश है
बनावटी परिवेश में।
इन हरी भरी यादों में
कसक तराशता है,
फिर से माहौल बने
और हम उन में
संजीदगी से नये
तरीके से रूबरू हो सके,
सुदूर आगंतुक की तलाश में
बिसरे यादों के संग
ख़त्म न हो हरियाली
इन्तजार की घडी समाप्त हो |
हम गलतियों से
इतने पिछड़ जाते हैं
कि दोबारा उसी राह से
दूर जाने का मन करता है
बार बार जिंदगी की भागदौड़
में कहीं न कहीं फिसल जाते हैं
कभी दूसरों की गलतियों के कारण
कभी स्वयं के बनाये हुए कलेवरों में
जब कभी भी जिन्दगी के भागडोर व
आपाधापी नुकसान भुगतना पड़ता है।