हम अपरिचित से रह जाते
हर समय और गिनते हैं
इंतज़ार की गढ़ियों को
जिसमे सिमट जाते हैं
अनेकों पल परिचितों
एवम अपरिचितों के साथ
चलते चलते और
सिमट जाते हैं तलाश में
नये सवेरा की ओर
न जाने अब की गढ़ी
में कौन सा मंजर होगा
इस इंतज़ार की गढ़ी में
और रह जाते हैं अपरिचित