1 सितंबर 2011

अपरिचित रह जाते हैं


हम अपरिचित से रह जाते
हर  समय और गिनते हैं
इंतज़ार  की गढ़ियों को
जिसमे  सिमट जाते हैं
अनेकों  पल परिचितों
एवम अपरिचितों  के साथ
चलते चलते और
सिमट जाते हैं तलाश में
नये  सवेरा की ओर
न जाने अब की गढ़ी
में  कौन सा मंजर होगा
इस  इंतज़ार की गढ़ी में
और रह जाते हैं अपरिचित