10 अक्तूबर 2011

खो जाते हैं

भीड़ में कहीं खो जाते हैं हर बार
भटक जाते हैं अनेक दिशाओं की ओर

न जाने मन क्यूँ इतना  चंचल हो जाता है
इस भीड़ से हटकर दिशाएं हटा लेती है

हर कदम पर हम कहीं खो से जाते हैं
हम सोचकर भी हल नहीं निकल पाते

इस भीड़ भरी दिशाओं में  हरेक से जुड़कर
हमेशा हम कहीं न कहीं खो जाते हैं भीड़ में
   

कदम बढ़ाते हैं

जैसे ही कदम बढ़ाते हैं
अधूरा ख्वाब रोक लेता है
इतनी कसक की कहीं छूट
न जाये और मिल मिलाये
अंधियारे में,
फिर भी कदम बढ़ाते हैं
और थक से जाते हैं
आज अलग है
न जाने कल कैसा होगा
एक नयापन सा है
कदम रखते ही
इस बीच एक असमंजस सा है